शृंगार (Beauty)
“मेरे सामने श्रुंगार करो” था उसका अनुरोध
उस बात पे रंग गयी, फिर रहा न कोई बोध।
मेरी ख़ुशी कि न थी कोई सीमा
उसको सौंपी थी अपनी ज़िंदगी और अपनी गरिमा।
पायल, झुमके और हार पहना उसकी पसंद से
पर वो नज़र चुरा रहा था मुझसे।
काजल लगाने जब मैंने आँखें अपनी मुंदी
अदृश्य हुआ वो, अब कहाँ उसे ढूंढ़ती ?
फिर हुआ अपने ही सामने मेरा तमाशा
उसे ढूंढ़ने कि छोड़ी मैंने आशा।
लोग पूछते जब कारण मेरी सादगी का
अधूरी मुस्कान से कहती, श्रुंगार तोह मैं कर लूं पर डर है आँखें मुँदनेका।
